“Umeed” is a Hindi-Urdu word that translates to “hope” in English. It encapsulates the sentiment of optimism and positive anticipation for a better future or outcome. In various cultural contexts, “umeed” symbolizes the human capacity to hold onto expectations, even in challenging times. It represents the emotional and psychological drive to overcome obstacles and look forward to possibilities. The word “umeed” is often used in literature, art, and everyday conversations to convey a sense of aspiration and the belief that things can improve. Just as hope is a universal concept, “umeed” holds significant importance in the linguistic and emotional landscape of Hindi-Urdu speakers. Certainly, I’d be happy to provide more information about the concept of “umeed.” “Umeed” is not just a simple word; it carries deep emotional and cultural significance. In many cultures, including Hindi and Urdu-speaking communities, hope is considered a fundamental human emotion that drives people to persevere through challenges and uncertainties. The concept of “umeed” goes beyond mere optimism; it embodies a sense of longing, desire, and expectation for a positive outcome, even in the face of adversity. This word is often invoked in literature, poetry, music, and everyday conversations to convey a range of emotions and sentiments. It can symbolize a flicker of light in the darkness, a source of motivation during difficult times, and a reason to continue striving for better days. Whether it’s a farmer hoping for a bountiful harvest, a student aspiring to achieve their dreams, or an individual seeking solace in times of despair, the concept of “umeed” resonates deeply across various aspects of life. In a broader context, “umeed” reflects the universal human tendency to cling to possibilities and to find strength in the anticipation of positive change. It serves as a reminder that even when circumstances seem bleak, there is always a potential for improvement and growth.
तुम जा सकते हो तुम्हे_परेशान होने की जरूरत नही है हम यूँ ही किसी से वफ़ा की ‘‘उम्मीद’’ नही रखते पर ये मत_समझना कि हम बेवफाई से ‘वाकिफ’ नही है
वो #नब्ज नहीं फिर थमने दी, जिस नब्ज को हमने_थाम लिया, बीमार है जो ‘किस’ धर्म का है हमसे कभी ना यह #भेद हुआ, शरहद पर जो_वर्दी खाकी थी अब उसका रंग सफेद हुआ.
जब हम अपनी ‘‘उम्मीद’’ व सब कुछ खो देते है तब हमें यह ज़िन्दगी #मौत और अपमान की तरह लगती है.
अब कोई ‘‘उम्मीद’’ न रही,इस जमाने से। सब छोड़ जाते हैं,किसी न किसी ”बहाने” से।।
‘‘उम्मीद’’, हिम्मत, चाहत, तलाश… शायद ज़िन्दगी इसी_को कहते हैं…!!
पता है मैं हमेशा_खुश क्यों रहता हूँ ? क्योंकि, मैं खुद के #सिवा किसी से कोई ‘‘उम्मीद’’ नहीं रखता।
#दीवानगी हो अक़्ल हो ‘‘उम्मीद’’ हो कि आस अपना वही है ‘वक़्त’ पे जो #काम आ गया !!
वो ‘‘उम्मीद’’ ना कर मुझसे जिसके मैं ‘काबिल’ नहीं, खुशियाँ मेरे #नसीब में नहीं और यूँ बस, दिल रखने के लिए #मुस्कुराना भी वाज़िब नहीं।
जरूरी नहीं की कुछ_तोड़ने के लिए पत्थर ही मारा जाए लहजा बदल कर बोलने से भी बहुत_कुछ टूट जाता है
बदल जाएंगे हम भी #मौसम की तरह कोई सिद्दत से चाहो तो यारों #समस्या होती नहीं है बड़ी कोई सुलझाने का ‘प्रयास’ तो करो यारों
एक ‘‘उम्मीद’’ से दिल बहलता रहा इक तमन्ना सताती रही रात भर
बहुत_चमक है उन आँखों में अब भी, इंतज़ार नहीं बुझा पाया है ‘‘उम्मीद’’ की लौ!
जब हम_अपने आस-पास ईश्वर को #महसूस करते है, तब-तब हमें ‘‘उम्मीद’’ की नई किरण दिखाई देती है.
हमें सीमित निराशा को #स्वीकार करना चाहिए लेकिन ”असीमित” आशा को नहीं छोड़ना चाहिए
बिना #कोशिश के कामयाबी की कभी भी ‘‘उम्मीद’’ मत रखना और जो तोड़ दे ‘रिश्तों’ का धागा रिश्तों में #कभी भी ऐसी ज़िद मत रखना
कटी हुई “टहनियां” कहां छांव देती है हद से ज्यादा ‘उम्मीदें’ हमेशा घाव देती हैं
#Expectations की महफ़िल तो हर कोई सजाता है, पूरी उसकी होती है, जो_तकदीर लेकर आता है”
हौसले के ‘तरकश’ में कोशिश का वो तीर ज़िंदा रखो हार जाओ चाहे #जिन्दगी मे सब कुछ मगर फिर से जीतने की ‘‘उम्मीद’’ जिन्दा रखो!
एक ‘अरसे’ बाद हमारी नफ़्स #मुस्कुरा रही है जनाब, यक़ीनन उनके ”अल्फ़ाज़” में उमीद-ए-परवाज़ बेलौस है ।
मुझे #दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की ‘‘उम्मीद’’ रहती है किसी का भी हो सर “क़दमों” में अच्छा नहीं लगता
खुश है तू अपनी_दुनिया में न जाने क्यों मैं ही कुछ लम्हे #थामकर बैठी थी।
अगर ”चाहत” हो कुछ करने की तो छोटी सी ‘‘उम्मीद’’ एक बड़ा हौंसला बन जाती है तिनका तिनका जोड़ती है ‘छोटी’ सी चिड़िया चिड़िया की ‘‘उम्मीद’’ ही है जो तिनके के रूप में #घोंसला बन जाती है
लौट आयेंगी ”खुशियाँ” थोड़ा गमों का शोर है, जरा #संभलकर रहना दोस्तों ये इम्तिहानों का ‘दौर’ है.
उन लोगों को ‘‘उम्मीद’’ को कभी टूटने ना दो जिनकी आखिरी ‘‘उम्मीद’’ आप ही हो
खुशी दे या ”गम” दे मगर देते रहा कर तू ‘‘उम्मीद’’ है मेरी तेरी हर #चीज़ अच्छी लगती है
सिर्फ़ सांसे_चलते रहने को ही #जिंदगी नहीं कहते आंखों में कुछ ‘ख़्वाब’ और दिल में #उम्मीदों का होना जरूरी है।
उसकी प्यारी #मुस्कान होश उड़ा देती हैं उसकी आँखें हमें दुनिया_भुला देती हैं आएगी आज_भी वो सपने मैं यारो बस यही ‘‘उम्मीद’’ हमें रोज़ सुला देती हैं !!
रही ना #ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी, तो किस ‘‘उम्मीद’’ पे कहिये की आरज़ू क्या है।
इन ‘सर्दियों’ से जो धूप की चाहत रख़ता हूँ तुम्हें_पता हैं मैं तुमसे कितनी ‘‘उम्मीद’’ रख़ता हूँ
‘‘उम्मीद’’ वह आखिरी चीज है जो व्यक्ति हारने से ”ठीक” पहले करता है
‘‘उम्मीद’’ वक्त का सबसे बड़ा सहारा है, गर हौसला हो तो हर #मौज में किनारा है, रात तो वक्त की #पाबंद है, ढल जायेगी, देखना ये है कि ‘चिरागों’ का सफर कितना है।
अपेक्षा के #बदले जब उपेक्षा मिलती है, तो पत्थर दिल इन्सान का भी दिल_टूटकर बिखर जाता है.
काश हम भी ”पत्थर” के होते कुछ नहीं करते, ‘फिर’ भी लोग हमें पूजते ना किसी से ‘‘उम्मीद’’ करते और ना ही किसी की ‘‘उम्मीद’’ को तोड़ते फिर भी सब की आखिरी ‘‘उम्मीद’’ हम ही होते
प्यार तो जी भर कर करो बस ‘‘उम्मीद’’ मत रखना क्योंकि तकलीफ “मोहब्बत” नहीं उम्मीदें देती है
अब वफा की ‘‘उम्मीद’’ भी किस से करे भला मिटटी के बने लोग #कागजो मे बिक जाते है।
यकीन मानो #रिश्ता तोड़कर एक बार रोना रिश्ते में रहकर रोज रोज रोने से “लाख” गुना बेहतर है
नज़र में शोखि़याँ लब पर #मुहब्बत का तराना है मेरी ‘‘उम्मीद’’ की जद में अभी सारा जमाना है
‘‘उम्मीद’’ ऐसी हो जो मंजिल तक ले जाये, मंजिल ऐसी हो जो जीना_सिखलाये, जीना ऐसा हो जो #रिश्तों की कदर करे, रिश्ते ऐसे हों जो याद करने को “मजबूर” करें।
‘‘उम्मीद’’ खुद से रखो कभी औरों से नहीं, यहां खुद के सिवा कोई_किसी का नहीं।
इतना भी ‘मत’ रुठ मुझसे, कि तुझे मनाने की ‘‘उम्मीद’’ ही खत्म हो जाए !!
अपने सीने से लगाए हुए ‘‘उम्मीद’’ की लाश मुद्दतों जीस्त को ”नाशाद” किया है मैंने तूने तो एक ही #सदमे से किया था दो-चार दिल को हर तरह से ‘बर्बाद’ किया है मैंने…
शाम का मातम…. आसमां से_उतरने लगा , सब्र _अब मेरा….. जवाब देने लगा , मंज़िल के #रस्ते को जाते… कदम ‘डगमगाने’ लगा ,
शायद उम्मीदों का सवेरा”… मेरा अब ढलने लगा !!
और उनसे ‘‘उम्मीद’’ ए वफ़ा चाहते हो पागल हो #बीमारी से दवा चाहते हो।”
जो सबसे अलग होते है उनके_साथ कोई नहीं होता , वैसे भी मेरे ‘साथ’ कोई होगा इसकी ‘‘उम्मीद’’ भी नहीं है ।
‘‘उम्मीद’’ ऐसी न थी महफिल के #अर्बाब-ए-बसीरत से गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे
जब लोग आपसे यह #Expect करें कि आप अपना आपा खो देंगे, ऐसी स्थिति में शांत रहकर दिखाना_परिपक्वता की निशानी है.
दूर हो के तुमसे ”ज़िंदगी” सज़ा सी लगती है, यह साँसे भी जैसे मुझसे_नाराज सी लगती हैं, अगर ‘‘उम्मीद’’-ए-वफ़ा करूँ तो किस से करूँ, मुझ को तो मेरी ज़िंदगी भी ‘बेवफ़ा’ लगती है।
मेरे जुनूँ का #नतीजा ज़रूर निकलेगा इसी सियाह ”समुंदर” से नूर निकलेगा
दिल-ए-वीराँ में अरमानो की #बस्ती तो बसाता हूँ, मुझे ‘‘उम्मीद’’ है हर आरज़ू ग़म साथ लाएगी !! –
#उम्मीदों की कश्ती को ङुबोया नहीं करते, मंज़िल दूर हो तो थक_कर रोया नहीं करते, रखते हैं जो दिल में ‘‘उम्मीद’’ कुछ पाने की, वो लोग #ज़िंदगी में कुछ खोया नहीं करते…
एक रात आप ने ‘‘उम्मीद’’ पे क्या रक्खा है आज तक हम ने “चराग़ों” को जला रक्खा है
मिलने की ‘‘उम्मीद’’ तो नहीं है तुमसे लेकिन कैसे कहदूँ_इंतजार नहीं
सपनो की #दुनिया सज़ा रखी है, मोहब्बत की ”ज्योति” जला रखी है, मेरे दिल को “टूटने” से कोई बचा नहीं सकता, क्योंकि पत्थर दिल से प्यार की ‘‘उम्मीद’’ लगा रखी है
जब जब आपसे मिलने की ‘‘उम्मीद’’ नज़र आयी मेरे पैरों में #ज़ंजीर नज़र आयी गिर पड़े आँसू_आँखों से और हर आंसू में आपकी #तस्वीर नज़र आई !!
कहने को तो ‘क़ायम’ है ‘‘उम्मीद’’ पर ये दुनिया अगर हो ख़ुशी अज़ीज़ कोई ‘‘उम्मीद’’ ना लगाना !!
आधे दुखः गलत लोगों से ‘‘उम्मीद’’ रखने से होते है और बाकी आधे_सच्चे लोगों पर शक करने से होते है
उसी रह पर हम ‘‘उम्मीद’’ लेकर बेचैन हैं की वो आयेंगे, #मौत को भी गुज़ारिश की तोड़ा ‘इंतजार’ कर ले
कहने को लफ्ज दो हैं ‘‘उम्मीद’’ और हसरत, लेकिन निहाँ इसी में ”दुनिया” की दास्ताँ है
अबके #गुज़रो उस गली से तो जरा ठहर जाना, उस पीपल के साये में मेरी ‘‘उम्मीद’’ अब भी बैठी है।
होंसलों के_तरकश में, कोशिश का वो तीरज़िंदा रखो… हार जाओ चाहे ज़िंदगी में सब कु्छ मगर फिर से जीतने की #उम्मी्द ज़िंदा रखो…
तेरी ‘‘उम्मीद’’ तेरा इंतज़ार करते है है सनम हम तो सिर्फ तुमसे_प्यार करते है !!
कोई ‘‘उम्मीद’’ भी बाक़ी ना रही ज़िंदगी मे अब वो छ्छूद के चले गये ‘दामन’ को झाड़ के निगाहे आस से तकती हैं #झलक पाने को ये_दिल ही जानता है अब कभी ना होगी सुबह
मुद्दतें_बीत गयी आज पर #यार-ए-ज़िद्द ना गयी, बंद कर दिए गए दरवाजे मगर ‘‘उम्मीद’’ ना गयी
जब #जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो जाते है, तब ‘‘उम्मीद’’ ही जीवन का सही_रास्ता होता है.
करीब_इतना रहो कि रिश्तों में प्यार रहे, दूर भी इतना रहो कि आने का #इंतज़ार रहे, रखो ‘‘उम्मीद’’ रिश्तों के दरमियान इतनी, कि टूट जाये ‘‘उम्मीद’’ मगर रिश्ते बरक़रार रहें।
जब किसी को चाहो तो ये ‘‘उम्मीद’’ मत करो की वो भी तुम्हें चाहे। बस #कोशिश करो की तुम्हारी चाहत ऐसी हो की उसे तुम्हारे_सिवा किसी और की चाहत पसंद ना आये।
‘‘उम्मीद’’ वह सकारात्मक विचार है, जो इंसान को ”निराशा” में भी प्रयास करने के लिए #प्रेरित करता है.
जीवन में बड़ी #सफलताएँ पाने वाले लोग इच्छाओं और “Expectations” को अपने नियन्त्रण में रखते हैं.
नज़र #कमजोर रखते हो या फिर ‘चश्मा’ नहीं पहना नज़र में जोर जो होता तो हम भी_दिख गये होते
हम कई #रिशतों को टूटने से बचा सकते हैं केवल अपनी सोच में यह छोटा सा #बदलाव करके, कि #सामने वाला गलत नहीं है, सिर्फ हमारी ‘‘उम्मीद’’ से थोङा अलग है
रात के ”बाद” फिर सुबह होगी और पतझड़ के #बाद फिर बहार लौटेगी ग़मों से कभी_परेशान मत होना ग़मों के बाद फिर #खुशियाँ घर लौटेगी पतझड़ के बाद फिर बहार लौटेगी
अभी उसके लौट आने की ‘‘उम्मीद’’ बाकी है, किस तरह से मैं अपनी आँखें_मूँद लूँ।
अक़्सर हम जिनसे ‘‘उम्मीद’’ रखते हैं ज़ख्म पर मरहम लगाने की, सबसे ज्यादा जल्दी उन्हीं को होती है #ज़ख्म पर नमक लगाने की।।
अपनी #जिंदगी में किसी इंसान को अपनी_आदत न बनाना, क्योंकि जब वो #बदलता है, तो उससे ज्यादा खुद पर ‘गुस्सा’ आता है
बीते दिनों की #भूली हुई बात की तरह, आँखों में जागता है कोई_रात की तरह, उससे ‘‘उम्मीद’’ थी की निभाएगा साथ वो, वो भी बदल गया मेरे_हालात की तरह।
तोड़_दो हर वो ख्वाब हर ख्वाहिस ‘तोड़’ दो मुझसे तो तुमने की वो ‘‘उम्मीद’’ छोड़ दो .
बादलों ने बहुत_बारिश बरसाई, तेरी याद ‘आई’ पर तू ना आई, सर्द रातों में उठ -उठ कर, हमने तुझे #आवाज़ लगाई, तेरी याद ‘आई’ पर तू ना आई, भीगी -भीगी हवाओ में, तेरी_ख़ुशबू है समाई, तेरी याद आई पर तू ना आई, बीत गया #बारिश का मौसम बस रह गयी ‘तनहाई’, तेरी याद आई पर तू ना आई।
मैं वो #ग़म-दोस्त हूँ जब कोई ताज़ा ग़म हुआ पैदा, न निकला एक भी मेरे सिवा ‘‘उम्मीद’’-वारों में !! -हैदर अली आतिश
फिर ऊंची उड़ान भरेगा हर परिंदे को उम्मीद फिर सूरज निकलेग अभी दौर है पौधे उगाने का वक्त आएगा जब हर पौधे में फूल खिलेगा हर परिंदे को उम्मीद है फिर सूरज निकलेगा
छंट जाएँगे ग़म के बादल दौर खुशियों का फिर मुड़ कर आएगा बुझने न देना उम्मीद का दीया अंधेरा कितना भी घना हो दीया जगमगाएगा दौर खुशियों का फिर मुड़कर आएगा
रात के बाद फिर सुबह होगी और पतझड़ के बाद फिर बहार लौटेगी ग़मों से कभी परेशान मत होना ग़मों के बाद फिर खुशियाँ घर लौटेगी पतझड़ के बाद फिर बहार लौटेगी
जो है उचित काम आज वो सभी करें कल बेहतर होगा इसकी उम्मीद तभी करें
अच्छे दौर आये इस की उम्मीद हर कोई करता है मगर अच्छे वक्त के लिए अच्छी शुरुआत हर कोई कहाँ करता है
बुरा दौर देख ठहर मत जाना जो आग बनकर जलता है वही तो सूरज कहलाता है
मंजिल की उम्मीद हर कोई करता है मगर निरंतर मंजिल की ओर अग्रसर रहने वाले मुसाफ़िर को ही मंजिल मिलती है
मिलेगा किनारा उसे जिसे उम्मीद का सहारा है सिर्फ़ चांद की ही ख़्वाहिश क्यों रखते हो ! अगर है हौंसला तो तुम्हारा ये आसमान सारा है जीवन है नदी उम्मीद जैसे कश्ती है मंजिलों की कीमत कुछ भी नहीं यह तो हमारे हौसलों से भी सस्ती है
बिना कोशिश के कामयाबी की कभी भी उम्मीद मत रखना और जो तोड़ दे रिश्तों का धागा रिश्तों में कभी भी ऐसी ज़िद मत रखना
कौन साथ है, हलात गवा देते हैं सूखे पेड़ भला कहाँ हवा देते हैं उम्मीद उन रिश्तों से की जाती है जो चोट लगने पर हमें दवा देते हैं
परिंदे अपना आशियाना भुलाया नहीं करते जो खुशी दे उसको कभी रुलाया नहीं करते उम्मीद है बच्चों को लौट आएगी माँ लेकर दाना घोंसले है कच्चे इसीलिए पेड़ों को हिलाया नहीं करते
बिना उम्मीद के जीना बेकार है और जिस दिन लबों पर मुस्कान नहीं वह दिन ज़िंदगी का बेकार है
डूब गई कश्तियाँ तो क्या उम्मीद बरकरार है है हौंसला ख़ोज लेंगे किनारा तैरकर सही भले ही ज़िंदगी अपनी समुंदर के मझधार है
जुबान से माफ़ करने में वक्त नहीं लगता दिल से माफ़ करने में उम्र बीत जाती है
हौसले के तरकश में कोशिश का वो तीर ज़िंदा रखो हार जाओ चाहे जिन्दगी मे सब कुछ मगर फिर से जीतने की उम्मीद जिन्दा रखो!
अधूरी मोहब्बत मिली….. तो नींदें भी रूठ गयी,….* गुमनाम ज़िन्दगी थी ….तो कितने सुकून से सोया करते थे….
आज तक है उसके लौट आने की उम्मीद आज तक ठहरी है ज़िंदगी अपनी जगह लाख ये चाहा कि उसे भूल जाये पर हौंसले अपनी जगह बेबसी अपनी जगह…
उम्मीद ऐसी न थी महफिल के अर्बाब-ए-बसीरत से गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे
बहुत चमक है उन आँखों में अब भी, इंतज़ार नहीं बुझा पाया है उम्मीद की लौ!
मत कर हिसाब तूं मेरी मोहब्बत का,,, नहीं तो ब्याज में ही तेरी जिन्दगी गुजर जायेगी…
हम जिन्दगी से हमेशा वो चाहते हैं जो हमें अच्छा लगता है,, मगर जिन्दगी हमको वही देती है जो हमारे लिए अच्छा होता है!
अब वफा की उम्मीद भी किस से करे भला मिटटी के बने लोग कागजो मे बिक जाते है।
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